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कभी राजा,जमींदार,
मालगुजार के “बाड़ों”
से भी पहचान थी रायपुर
की…. {किश्त 228}
इतिहास के पन्नों से

वरिष्ठ पत्रकार शंकर पांडे की कलम से

कभी छ्ग की राजधानी रायपुर में राजा, रजवाड़ों के महल,बाड़े हुआ करते थे,वहां अब केवल आधु निक बिल्डिंगें नजर आ रही हैँ।छत्तीसगढ़ में कभी14 रजवाड़े लगभग 36 जमीं दारियां हुआ करती थीं।1818 में अंग्रेजों ने रतनपुर से राजधानी रायपुर स्थानां तरित की।1853 में राजा रघुजी भोंसले की मृत्यु के बाद 1854 में राज धानी रायपुर सहित छग, अंग्रेजों की सत्ता में शामिल होगया। यहीं से शुरू हुआ रायपुर में बाड़ों का इतिहास लगभग सभी राजाओं,जमींदारों, मालगुजारों ने शहर में बाड़े बनवाए। कवर्धा बाड़ा, राय गढ़ बाड़ा ,कोमाखान बाड़ा, खरियार बाड़ा और खैरागढ़ बाड़ा शहर की पहचानहुआ करते थे।आज इनमें से कई आधुनिक भवन में तब्दील हो गये हैं। कुछ जर्जर हैँ, कुछ थोड़ा बहुत अस्तित्व सलामत होने के बावजूद अनदेखी के चलते दम तोड़ रहे हैं।बूढ़ापारा के अंदरूनी इलाके में खरियार बाड़ा होता था,बाद में राजभवन के सामने की रोड पर एक खरियार बाड़ा बना। लेकिन दोनों का अस्तित्व ही अब नजर नहीं आता। सिविल लाइंस में लगभग 20 साल पहले तक रायगढ़ बाड़ा के रूप में मौजूद था, लेकिन अब आधुनिक कॉलोनी बन गई है। जयस्तंभ चौक के करीब छुरा बाड़ा होता था, बात इतिहासकार जानते हैं। लाखेनगर के पास ही छुईखदान बाड़ा का भी कुछ अंश ही बचा है।पत्थर ही गवाही हैं कि कभीमुख्या लय में काम पडऩे पर शहर में बने बाड़े ही राजाओं का घर भी हुआ करते थे, रिया सतों के राज कुमार, जमीं दारों के बेटे यहां रह शिक्षा ग्रहण करते थे। लेकिन अब यहां कुछ पत्थर इतिहासके साक्षी के रूप में ही मौजूद हैं। कटोरा तालाब , बैरन बाजार,पास के सिविल लाइंस क्षेत्र में लंबे-चौड़े कोमाखान, फिंगेश्वर और कवर्धा बाड़े भी हुआ करते थे। बाड़ों का कुछ हिस्सा अभी भी अस्तित्व में हैं। लेकिन संरक्षित करने में किसी की दिल चस्पी नजर नहीं आती,इसी तरह तेली बांधा के पास ही खैरागढ़ बाड़ा,जेलरोड पर बस्तर बाड़ा,जीई रोड पर डोंडी लोहारा बाड़ा का कुछ हिस्सा जीर्णशीर्ण अवस्था में दिखाई देता है।पुरानी बस्ती, ब्राह्मणपारा, बूढ़ा पारा में साहूकारों-माल गुजारों के कई बाड़े अभी अस्तित्व में है।रायपुर एक समय बाड़ों के शहर केनाम से मशहूर हुआ करता था।बाड़ों का निर्माण राजाओं, मालगुजार,जमींदार ने ही कराया था।समय के साथ- साथ बाड़े अपनी पहचान खो रहे हैँ। अलग-अलग हिस्सों में कई बाड़े मौजूद थे,कलचुरी काल राजाओं ने रायपुर को अपनी राज धानी बनाई थी शुरुआती दिनों में किला, खारून नदी के तट पर था बाद में राज धानी के ब्रह्मपुरी क्षेत्र में किला बना था,सन 1741 में मराठों के आक्रमण के बाद,1853 तक मराठा शासक,नागपुर के भोंसले राजाओं का प्रभाव रहा, सन 1854 से 1947 तक अंग्रेजों का प्रभाव क्षेत्र रहा। अंग्रेजों ने बिलासपुर जिले के रतनपुर से राजधानी हटाकर रायपुर में बनाई थी तभी से रायपुर पूरे छत्तीस गढ़ का केंद्र बिंदु बन गया था।अंग्रेजों ने पूरे छग के राजस्व वसूली के उद्देश्य से रायपुर को ही मुख्यालय बनाया था। गांव की वसूली गौँटिया करते थे।उनके ऊपर जमीँदार,राजा होता था। राजा ही अंग्रेजों को हिसाब देता था।राजस्व जमा करने साहित अन्य कार्यों के लिये रायपुर आना होता था। उनके साथ लाव- लश्कर भी आता था। कई बार तो पखवाड़े तक भी रुकना पड़ जाता था। रहने की दिक्कत आने लगी इस लिये यहां स्थाई ठौर बनाना शुरू किया।इसकी शुरुआत बाड़ा बनाने से हुई,इनका निर्माण राजा,बड़े जमींदारों ने करवाया था।बस्तर बाड़ा राजनांदगांव बाड़ा,छुई खदान, आरंग, फिंगेश्वर, कोमाखान,रायगढ़,कडिया बाड़ा ये कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने न सिर्फ अंग्रेजी हुकूमत के समय अपनी भव्यता को लेकर सुर्खियां बंटोरी बल्कि आज भी इनका नाम शहर में बड़े अदब से लिया जाता हैआम जनता भी राजस्व, शिक्षा, खरीदी के उद्देश्य से रायपुर आती थी। गांवों में रहने वाले बड़े लोग बच्चों को रायपुर में पढ़ाना चाहते थे।इन्हीं वजहों से कारा बाड़ा, अमेरी बाड़ा,जमराव बाड़ा, गेंदी बाड़ा,शुक्ल बाड़ा शेष बाड़ा, झाबक बाड़ा, पुरो हित बाड़ा,गुप्ता बाड़ा, हर्रा बाड़ा, दानी बाड़ा, बुलामल बाड़ा आदि बने थे। कुछ बाड़े किराए देने के उद्देश्य से भी बनाए गये थे। रिश्ते दार किरायेदार सभी अलग उद्देश्यों से रहते थे। कोई पढ़ाई करने आता था तो रोजगार के लिए आश्रय पाता था। बहुत सारे लोग दूर गांवों से बैलगाड़यों एवं -घोड़ागाडियों में आते थे। इन्हीं बाड़ों में ठहर, खरीदी करते और गांव लौट जाते थे।रायपुर के महानगर बन जाने की नींव इन्हीं बाड़ों में रखी जाने लगी।लगभग 5-6 पीढि़यां इन बाड़ों में आई,कोई अपना काम करके वापस लौट गया तो कोई रायपुर में ही अपना घर बनाकर रहने लगा।इन्हीं बाड़ों के साथ ही मोहल्ले भी तो बसते चले गये थे…!

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